Wednesday, June 11, 2014

मिर्ज़ा ग़ालिब



मिर्जा असदुला खान ग़ालिब


(image source: soundcloud.com)
मिर्ज़ा ग़ालिब एक इंडियन टेलीविज़न ड्रामा थी जो गुलज़ार साहब ने १९८८ में लिखिथी और दूरदर्शन इंडिया में सीरियल के तोर में दिखाई गई थी। जिसमे नसरुदीन शाह ने मिर्ज़ा ग़ालिब का रोल किया था और जगजीत सिंह ने सारी ग़ज़लें पेश की थी। 

यहाँ पे उस टेलीविज़न ड्रामा के कुछ हसीन लम्हों को केद करने की एक कोशिश कर रहा हु।

हे और भी दुनिया में सुख़नवर बोहत अच्छे,
केहते हे की ग़ालिब का हे अंदाजे बयां और।

बेगम: अभी भी वख्त हे जाके सुलाह करलो अल्लाह से।
मिर्ज़ा: किस मुह से जाऊ सतर साल से बुला रहा हे,
दिन में पांचो वख्त आवाज दी उसने, में उसके वफादारों में न था बेगम।
अब में उससे नहीं खुद से शर्मिंदा हु।

शिकायत हमसे नही खुद से करो।
(Poster)
दो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम हे,
रेहने दो अभी सागर मीना मेरे आगे हे।

उनके देखे से जो आजाती हे रौनक,
वो समझते हे की बीमार का हाल अच्छा हे।

हमको मालुम हे जनन्त की हकीकत लेकिन,
दिल को खुश रखनेको ग़ालिब ये ख्याल अच्छा हे।

हमें आपकी ख़ामोशी में शिकायत सुनाई देती हे।

दोस्त लालाजी: मेरी जेब और जमीर दोनो का बोज हट जायेगा, अगर ये थोड़े पैसे तुम रखलो।
मिर्जा: कुछ लोग हे, कर्ज देना उसका रोजगार हे, उन्हें क्यों बेरोजगार करते हो।

पिलादे ओखसे(हाथकी हथेली से) ओ साथी अगर हमसे नफरत हे,
प्याला अगर नहीं देता न दे, शराब तो दे।

(जब शुरुआत में मिर्ज़ा आग्रा से दिल्ली आये थे तब)
शिया-सुनंनी, हिन्दू-मुसलमान क्या येही बटवारे  कम थे,
की लोगोने आग्रा-दिल्ली-लखनऊ की दीवारे खड़ी करदी।
ये दुनिया हमें बोहोत छोटी लगती हे हमें बेगम।

बाजीचाये(खेलने का मैदान) अत्फ़ाल (बच्चे) हे दुनिया मेरे आगे,
होता हे शबुरुज  तमाशा मेंरे आगे।
( Image source: mirza ghalib 1988)

मत पूछ की क्या हाल हे मेरा तेरे पीछे,
तू देख की क्या रंग, तेरा मेरे आगे।

इमा (मुस्लिम धर्म) मुझे रोके हे, जो खिचे हे मुझे कुफ्र(शराब),
ताबा(मस्जिद)मेरे पीछे हे, खलीसा(चर्च) मेरे आगे।
(मेरा आने वाला कल अंग्रेजो के लिए हे ऐसा मुझे दिख रहा था)

दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हु में,
खाख ऐसी जिंदगी पे की पत्थर नहीं हु में।

यारब जमाना मुझको मिटाता हे किस लिए
लोहे  जहापे अर्फए  मुकरर नहीं हु में।
(इस जहांकी तकती के ऊपर में वो अर्फ नहीं हु, की दुबारा लिखा जा सकु तो यारब जमाना मुझको मिटाता हे किस लिए) 

रेखते की तुम्ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब,
केहते हे अगले ज़माने में कोई मीर भी था।

मुसलमान बुजुर्ग: आप मुसलमान हो कर दिवाली की मिठाई में बर्फी खाएंगे मिर्ज़ा?
मिर्ज़ा: क्यों बर्फी हिंदु हे क्या?
मुसलमान बुजुर्ग: तो क्या मुसलमान हे, सिया हे, सुनी हे?
मिर्ज़ा: और जलेबी क्या हे खत्री जात की हे क्या?


( Image source: mirza ghalib 1988)
अबतो घबराके ये केहते हे की मर जायेंगे,
मर गए, पर न लगा ज़ि तो कीघर जायेंगे।

गम में हस्ता हु तो लोग समझते हे की रोना ही नहीं आता।

उनके देखे से जो आजाती हे मु पे रौनक,
वो समज ते हे की बीमार का हाल अच्छा हे।

दिले नादान तुजे हुआ क्या हे,
आखिर इस दर्द की दवा क्या हे। 
हमको उनसे वफ़ा की उम्मीद,
जो नहीं जानते, वफ़ा क्या हे।

मिर्ज़ा: आपने हमारे बर्तन अलग रखे हे ?
बेगम: नहीं हमने आपके नहीं हमारे अलग रखे हे।  हम अपने इमा (खुदा) से डरते हे।
आप खुदाकी जात से इतना क्यों दूर हे ?
मिर्ज़ा: तोबा तोबा, हमतो आपसे भी नजदीक हे खुदा से।  जो चाहे मांग लेते हे, गिड़गिड़ता नहीं।
बेगम: हा पर खुदा आपकी सुनता तो नहीं हे।
मिर्ज़ा: मुझे लगता हे की वो शायरी नहीं समझते होंगे, वो भी मेरी।
बेगम: अल्लाह इन्हे माफ़ करे।

आगे आती थी हाले  दिल पे हँसी,
अब किसी बात पर नहीं आती।

में गया वख्त भी नहीं हु की आभी न सकु।

कसित के आते आते खत इक और लिख रखु,
में जानता हु वो लिखेंगे जवाब में।

ताख़ीर न इलतजारमे नींद आए उम्र भर।
आने का एहद कर गए, आये जो ख्वाब में।

हाले दिल को लिखू मगर, हाथ दिल से जुदा नहीं होता।

एक बार हमारे गरीबखाने पे तशरीफ़ लाइए, किसीको जीते रेहने की नई वजह मिल गए।

ऐसा आदमी पहले कभी नहीं देखा, पॉव से लेके सर तक दिल ही दिल हे ये आदमी।

( Image source: mirza ghalib 1988)
बना हे शाह का मुसाहिब फिरे हे इतराता,
वगरना शेहेर में ग़ालिब की आबरू क्या हे।

हर एक बात पे केहते हो तुम की तू क्या हे,
तुम्ही कहो के ये अंदाजे गुफ्तगू क्या हे।

रगो में दोड़ते फिरने के  हम नहीं कायल,
जब आँख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या हे।

चिपक रहा हे बदन पर लहू से बेराहन,
हमारी जेब को अब हाज़ते रफू क्या हे।

हज़ारो ख्वाइशें ऐसी की हर ख्वाइश पे दम निकले,
बोहोत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिरभी कम निकले।

हिन्दुस्तान में हर पचास माइल पे लोगो की भाषा बदल जाती हे,
इस लिए दो लोगो की जबान पे फरक आजाये तो जायज हे,
लेकीन लोगो में फर्क आने लगे वो जायज नहीं हे।

दर्द उनन्त कशे दवा न हुआ,
में न अच्छा हुआ, बुरा न हुआ।